गजल लावणी की तर्ज में नं॰ ५९
मेरा मुरसद पीर खुदाई।
अजरामर सदाई॥टेर॥
मुरसिद मुझ में, मैं मुरसिद में, रंचक नहीं जुदाई।
महबूब पीर मुरसद है, वे चुन अदल अदाई॥१॥
दुई का परदा फटा, बजूद बिन लदाई।
खुदा ही खुदा दिखाता है, अब कहां रह गई जुदाई॥२॥
अबरु हरुह आता नजर भी, तू ही है नदाई।
मुरसिद का आसिक हुवा मैं, आन देव ना धाई॥३॥
मुरशद के कदम है हमेशा, अरस भीस्त दाई।
परवरदिगार मुरशद हमारा, रोशन पै मैं हो की दाई॥४॥
इल्लला हो इल्लाला, स्वामी दीप कहे सदाई॥५॥