पद राग रसिया नं॰ ८५
सजन वाली लागे ये, सदा ही सत संग।
सूरती और संत गावे चारों वेद कथंग॥टेर॥
सुख बैकुण्ठ स्वर्ग नहीं दुर्लभ,
दुर्लभ है सतसंग॥१॥
राजपाट अगिनत खजाना,
होत पलक में भंग॥२॥
सतसंग के सम काशी न मथुरा,
नहीं प्रयाग नहीं गंग॥३॥
नीच स्वभाव मिटे सतसंग से,
कीट होत ज्यों भृंग॥४॥
श्री पूज्य भगवान देवपुरी सा,
मस्त फकीर मलंग॥५॥
श्री स्वामी दीप कहे मैं कहां तक गाऊं,
सतसंग महिमा अथंग॥६॥