पद राग धनाश्री सारंग नं॰ १०८
साधु को मन सदाई उदासी रे।
सपना के मांय कल्पना है दुनियां,
सीपा में रुपो भासी रे॥टेर॥
दीसत ही जग कछु नहीं दरसे,
ये भरम हुलासी रे॥१॥
बिना हुवे सरप रज्जु के माही भासे,
कोई करल्यो तलासी रे॥२॥
सत गुरु स्वामी श्री देवपुरी सा,
चेतन पर काशी रे॥३॥
स्वामी हो दीप शरण श्री पूज्य के,
पलकां में पीव मिलासी रे॥४॥