भगवान श्री दीपनारायण महाप्रभुजी के अनेकों आत्मज्ञानी भक्त शिष्य हुए। उनमें से उनके उत्तराधिकारी, एक आध्यात्मिक ज्योतिर्पुंज, हिन्दू धर्म सम्राट परमहंस श्री स्वामी माधवानन्द जी थे। जिनके द्वारा महाप्रभुजी का दिव्य प्रकाश संसार को प्राप्त हुआ। उनके प्रिय भक्त शिष्य उन्हें "Holy Guruji” अर्थात् पवित्र गुरुजी कहकर संबोधित करते थे।
श्री गुरुजी का जन्म ११ सितंबर १९२३ में हुआ तथा संन्यास दीक्षा १९४२ में हुई। उन्होंने २० वर्षो से अधिक समय श्री महाप्रभुजी के साथ व्यतीत किया तथा पूरे समय श्री महाप्रभुजी के भजन, सत्संग तथा प्रवचनों का लेखन तथा संग्रहण किया।
श्री परमहंस स्वामी माधवानन्द जी आदि शंकराचार्य (७८८-८२०) द्वारा स्थापित दशनामी सम्प्रदाय के "पुरी" संभाग से संबद्व थे वे शैव परम्परा तथा अद्वैत दार्शनिकता के अनुयायी है।
गुरुजी ने महाप्रभुजी की पूर्ण शुद्व भक्ति तथा निष्काम सेवा के द्वारा भगवान् का साक्षात्कार प्राप्त किया। गुरुजी ने जीवन को पूर्ण भगवत् भक्ति तथा सभी प्राणियों की सेवा में लगाकर एक उत्तम उदाहरण प्रस्तुत किया। वे सत्य के साधकों के लिए एक प्रेरणा थे। उनका ध्यान तथा प्रार्थना संसार के लिए आध्यात्मिक संबल था। "त्याग के मार्ग के द्वारा ईश्वर के राज्य में प्रवेश करो" यह उनका प्रभु-भक्तों के नाम सन्देश था। भगवान् की प्राप्ति पूर्ण तथा निष्काम समर्पण द्वारा ही हो सकती हैं।
परमहंस स्वामी माधवानन्द जी ने सुदूर भारत में तथा विश्व में भी भ्रमण किया तथा अथक् रुप से सतसनातन धर्म तथा योग का प्रचार प्रसार श्री दीप महाप्रभुजी की आज्ञानुसार किया। उन्होंने बिना किसी राष्ट्रीयता, धर्म या जातिगत भेदभाव के विश्व-बन्धुत्व तथा सेवा का सन्देश दिया। गुरुदेव के प्रति प्रेमपूर्ण भक्तिभाव से परिपूरित जीवन तथा सभी जीवों के प्रति नि:स्वार्थ सेवा के द्वारा, श्री माधवानन्द जी ने प्रत्येक उस व्यक्ति को प्रभावित किया जो उनके संपर्क में था। उन्होंने सभी के प्रति स्नेह, बन्धुत्व तथा सहिष्णुता का सन्देश दिया जो उनके कथन "एक सर्व में, सर्व एक में है" से प्रतिपादित होता है।
एक महान गायक के रुप में भी उन्होंने भजनों के द्वारा अपना ज्ञान बांटा। गुरुजी ने हिन्दी व गुजराती में सैंकडों भजन लिखे।
"लीला-अमृत" नामक पुस्तक में उन्होंने श्री देवपुरीजी तथा महाप्रभुजी की अदभुत चमत्कारिक जीवनियों को लेखनी में उतारा। उन्होंने राजस्थान तथा गुजरात में आश्रम बनाये जो कि शिक्षा-केन्द्र है साथ ही संसार भर के भक्तों के लिए आध्यात्मिक तीर्थ-स्थल है।
सन् १९९८ में परमहंस स्वामी माधवानन्द जी महाराज हरिद्वार में विश्व हिन्दू परिषद् के द्वारा "धर्म चक्रवर्ती" के पद पर प्रतिस्थापित किये गये तथा २००१ में काशी विद्वत् समाज (बनारस के संस्कृत विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों तथा विद्वानों का समुदाय) के द्वारा जगद् गुरु सुमेरु पीठाधीश्वर श्री शंकराचार्य की उपस्थिति में प्रयागराज के महाकुम्भ मेले के अवसर पर "हिन्दू धर्म सम्राट" के आध्यात्मिक पद पर प्रतिष्ठित किये गये।
श्री गुरुजी माधवानन्द जी महाराज ने ३१ अक्टूम्बर २००३ में स्थूल शरीर का त्याग करके महाप्रयाण किया। परंतु वे सूक्ष्म रुप से भक्तों के अंतर्मन की अंतप्रेरणा के रुप में अब भी विद्यमान हैं।