गौ एक निरा दूध देने वाला पशु ही नहीं है, प्रत्युत वह अपने कुटुम्ब का हकदार है, या यों कहिये कि मालिक है और हम उसके परिवार के लोग हैं- यह भाव सदा मन में जीवित और जाग्रत रहना चाहिये। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, निषाद, राक्षस आदि सभी जाति के लोगों में यह विचार जाग्रत रहना चाहिये। ऐसा होने से सम्पूर्ण जगती तल पर गौ माता की पूजा होने लगेगी।
यह सम्पूर्ण जगत् ही गौ रूप अर्थात गाय का ही रूप है, इसीलिये गौ के साथ किसी एक पदार्थ की तुलना हो ही नहीं सकती। अन्य सभी पदार्थों को विविध उपमाएँ दी जा सकती है, केवल गौ ही ऐसा प्राणी हैं, जो अनुपम हैं, क्योंकि वह प्राणिमात्र की निरुपम माता है, मानव-वंशों का पालन करने वाली है और मानवमात्र उसके अवयव हैं। पाठक यदि विचार करेंगे और गौ के उपकारों का मनन करेंगे तो वेद का यह कथन ठीक तरह से उनकी समझ में आ सकता है।
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि उपर्युक्त वर्णन से वेद ने किस बात की शिक्षा दी है। इस प्रश्न के उत्तर में निवेदन है कि वेद ने इस सूक्त के द्वारा अहिंसा का उत्तमोतम उपदेश दिया है। मनुष्य तो क्या, कोई भी प्राणी अपने-आपकी हिंसा कदापि न करेगा। सिंह या अन्य हिंसक जन्तु दूसरे जीवों को मारकर खा जाते हैं। राक्षस भी मनुष्यादि प्राणियों को खा जाते हैं। परंतु दूसरे के मांस पर निर्वाह करने वाले क्रूर प्राणी अत्यधिक भूख लगने पर भी अपनी ही देह के अवयवों को कभी काटकर नहीं खाते।
अत: इस स्वाभाविक प्रवृति को लेकर ही वेद मनुष्यों को इस सूक्त के द्वारा गाय और बैल के मांस से पूर्णतया निवृत्त करना चाहता हैं। यह बात उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट हो जाती है।
जब सम्पूर्ण हृदय से मनुष्य अपने-आपको गौ के शरीर के अवयव मानने लगेंगे, तब वे लोग गौ या बैल का मांस किस तरह खा सकेंगे, क्योंकि कोई भी जीव अपने शरीर का मांस नहीं खाता, औरों की तो बात ही क्या, निरे आमिषभोजी अथवा नरमांसभोजी मनुष्य भी अपने शरीर का मांस नहीं खाते। इसलिये जो मनुष्य अपने-आपको गौ के शरीर का अवयव मानेगा, वह गौ मांस-भक्षण से पूर्णतया निवृत्त होगा ही।
देखिये- कितनी प्रबल युक्ति से वेद ने लोंगो को- मांस भोजी राक्षस-श्रेणी के लोंगो को भी निरामिषभोजी बनाने का यत्न किया है। यह इतनी प्रबल युक्ति है कि यदि इस प्रकार का विचार मन में सदा के लिये स्थिर हो जाये तो कभी कोई गौ मांस खाये ही नहीं। इतनी प्रबल युक्ति देने पर भी कई पाश्चात्य विद्वान यह मानते है कि वैदिक काल में गौ मांस खाने की प्रथा थी और बैल का मांस भी खाया जाता था। उन लोंगो से हमारी प्रार्थना है कि वे इस प्रबल युक्ति का अधिक विचार पूर्वक मनन करें और इसके बाद अपना मत स्थिर करें।
गौ मुझसे भिन्न नहीं, मैं उसके शरीर का एक भाग हूँ, इसलिये मुझे जिस प्रकार अपनी रक्षा करनी चाहिये, उसी प्रकार गौ की भी रक्षा अवश्य करनी चाहिये- यह कितना उत्तम उपदेश हैं ! पाठक इस उपदेश का महत्व समझें।
दुराचारी मनुष्य भी जिस समय किसी स्त्री को 'माँ' कहता है, उस समय उसकी दृष्टि में तत्काल पवित्रता आ जाती है। किसी को माता कहने का तात्पर्य ही यह है कि उसे पवित्रता की दृष्टि से देखा जाय।
गौ को माता कहने का अर्थ यही है कि उसे हम पवित्र एवं पूज्य-दृष्टि से देखें। गौ हमारी परम पूज्य, वन्दनीय एवं पालनीय माता है- यह भाव हमें हर समय जाग्रत रखना चाहिये। पाठक इस सूक्त का मनन इसी दृष्टि से करें। इन्द्रादि देवगण जीवित और जाग्रत गौ माता के देह में है। जहाँ इन्द्रादि देव रहते हैं, वहीं स्वर्ग है अर्थात गौ ही स्वर्गलोक है।